पहले तो हम छान आए ख़ाक सारे शहर की
तब कहीं जा कर खुला उस का मकाँ है सामने
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हिज्र को हौसला और वस्ल को फ़ुर्सत दरकार
टूट जाने में खिलौनों की तरह होता है
मिलती नहीं है नाव तो दरवेश की तरह
ये हम जो हिज्र में उस का ख़याल बाँधते हैं
वक़्त लफ़्ज़ों से बनाई हुई चादर जैसा
यूँ तो शीराज़ा-ए-जाँ कर के बहम उठते हैं
एक मुश्किल सी बहर-तौर बनी होती है
सुन रहा हूँ अभी तक मैं अपनी ही आवाज़ की बाज़गश्त
ये वाहिमे भी अजब बाम-ओ-दर बनाते हैं
मैं अपने इश्क़ को ख़ुश-एहतिमाम करता हुआ
शब की शब कोई न शर्मिंदा-ए-रुख़स्त ठहरे
घर पहुँचता है कोई और हमारे जैसा