पस-ए-ग़ुबार भी उड़ता ग़ुबार अपना था
तिरे बहाने हमें इंतिज़ार अपना था
Wasi Shah
Rahat Indori
Parveen Shakir
Anwar Masood
Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
Mir Taqi Mir
Jaun Eliya
Allama Iqbal
Gulzar
Javed Akhtar
Mohsin Naqvi
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1200) Peoples Rate This
ये वाहिमे भी अजब बाम-ओ-दर बनाते हैं
मुसाफ़िरत में शब-ए-वग़ा तक पहुँच गए हैं
शिकस्ता-ख़्वाब-ओ-शिकस्ता-पा हूँ मुझे दुआओं में याद रखना
ये ज़मीं तो है किसी काग़ज़ी कश्ती जैसी
बैठता उठता था मैं यारों के बीच
शायद किसी बला का था साया दरख़्त पर
हमारे जैसे वहाँ किस शुमार में होंगे
हँसने नहीं देता कभी रोने नहीं देता
हमें तो इस लिए जा-ए-नमाज़ चाहिए है
खा के सूखी रोटियाँ पानी के साथ
उसे मैं ने नहीं देखा
हम जुड़े रहते थे आबाद मकानों की तरह