ये मौज मौज बनी किस की शक्ल सी 'ताबिश'
ये कौन डूब के भी लहर लहर फैल गया
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रम्ज़-गर भी गया रम्ज़-दाँ भी गया
नक़्श सारे ख़ाक के हैं सब हुनर मिट्टी का है
हम हैं सूखे हुए तालाब पे बैठे हुए हंस
तू भी ऐ शख़्स कहाँ तक मुझे बर्दाश्त करे
हमारे जैसे वहाँ किस शुमार में होंगे
वो चाँद हो कि चाँद सा चेहरा कोई तो हो
रात कमरे में न था मेरे अलावा कोई
मेरी तन्हाई बढ़ाते हैं चले जाते हैं
फिर इस के ब'अद ये बाज़ार-ए-दिल नहीं लगना
ये ज़मीं तो है किसी काग़ज़ी कश्ती जैसी
शजर समझ के मिरा एहतिराम करते हैं
दे इसे भी फ़रोग़-ए-हुस्न की भीक