ज़िंदगी इक फ़रेब-ए-पैहम है
मुस्कुरा कर फ़रेब खाता जा
रौशनी क़र्ज़ ले के साक़ी से
सर्द रातों को जगमगाता जा
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सिर्फ़ इक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में
ये कैसी सरगोशी-ए-अज़ल साज़-ए-दिल के पर्दे हिला रही है
दफ़्न हैं साग़रों में हंगामे
मोहतात ओ होशियार तो बे-इंतिहा हूँ मैं
भूली-बिसरी बातों से क्या तश्कील-ए-रूदाद करें
साक़ी शराब ला कि तबीअ'त उदास है
जिस वक़्त भी मौज़ूँ सी कोई बात हुई है
हर दिल-फ़रेब चीज़ नज़र का ग़ुबार है
साक़ी ज़रा निगाह मिला कर तो देखना
इक हसीं आँख के इशारे पर
हाथ से खो न बैठना उस को
शिकन न डाल जबीं पर शराब देते हुए