दम-ब-दम मुझ पे चला कर तलवार
एक पत्थर को जिला दी उस ने
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ज़वाल-ए-जिस्म को देखो तो कुछ एहसास हो इस का
दिल में जो बात है बताते नहीं
कुछ अपना पता दे कर हैरान बहुत रक्खा
बरसते थे बादल धुआँ फैलता था अजब चार जानिब
साए फैल गए खेतों पर कैसा मौसम होने लगा
लौट गए सब सोच के घर में कोई नहीं है
उतरे थे मैदान में सब कुछ ठीक करेंगे
फ़लक पर उड़ते जाते बादलों को देखता हूँ मैं
कितनी महबूब थी ज़िंदगी कुछ नहीं कुछ नहीं
दूर बस्ती पे है धुआँ कब से
पाँव रुकते ही नहीं ज़ेहन ठहरता ही नहीं