ज़मीं को और ऊँचा मत उठाओ
ज़मीं का आसमाँ से सर लगेगा
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तुम अपने अक्स में क्या देखते हो
दुनिया ने जब डराया तो डरने में लग गया
चमका जो चाँद रात का चेहरा निखर गया
जो गुज़रता है गुज़र जाए जी
कभी सोचा है मिट्टी के अलावा
जानिब-ए-दर देखना अच्छा नहीं
अश्क ढलते नहीं देखे जाते
इक सैल-ए-बे-पनाह की सूरत रवाँ है वक़्त
फूल के लायक़ फ़ज़ा रखनी ही थी
मंज़रों के भी परे हैं मंज़र
याद यूँ होश गँवा बैठी है
साहिल पे लोग यूँही खड़े देखते रहे