यक़ीं का दाएरा देखा है किस ने
गुमाँ के दाएरे में क्या नहीं है
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तर्क करनी थी हर इक रस्म-ए-जहाँ
कोई रिश्ता न हो फिर भी रिश्ते बहुत
दुनिया ने जब डराया तो डरने में लग गया
शाइरी पेट की ख़ातिर 'जावेद'
चाँदनी रात में हर दर्द सँवर जाता है
चाँदनी का रक़्स दरिया पर नहीं देखा गया
सजाते हो बदन बेकार 'जावेद'
हर लम्हा मर्ग-ओ-ज़ीस्त में पैकार देखना
मंज़रों के भी परे हैं मंज़र
इस ही बुनियाद पर क्यूँ न मिल जाएँ हम
कभी प्यारा कोई मंज़र लगेगा