तुम अपने अक्स में क्या देखते हो
तुम्हारा अक्स भी तुम सा नहीं है
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नंगे पाँव की आहट थी या नर्म हवा का झोंका था
चाँदनी का रक़्स दरिया पर नहीं देखा गया
हर लम्हा मर्ग-ओ-ज़ीस्त में पैकार देखना
मैं तेरी ही आवाज़ हूँ और गूँज रहा हूँ
कभी सोचा है मिट्टी के अलावा
जब थी मंज़िल नज़र में तो रस्ता था एक
साहिल पे लोग यूँही खड़े देखते रहे
तर्क करनी थी हर इक रस्म-ए-जहाँ
फिर नई हिजरत कोई दरपेश है
यक़ीं का दाएरा देखा है किस ने
चाँदनी रात में हर दर्द सँवर जाता है
मंज़रों के भी परे हैं मंज़र