संग Poetry

अब शहर में कहाँ रहे वो बा-वक़ार लोग

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

दिन हो कि हो वो रात अभी कल की बात है

फ़ीरोज़ाबी नातिक़ ख़ुसरो

हर मुलाक़ात में लगते हैं वो बेगाने से

ए जी जोश

किस को होगा तिरे आने का पता मेरे बा'द

महमूद शाम

बंद हथेली में हैं सब

बीना गोइंदी

इक तेरी बे-रुख़ी से ज़माना ख़फ़ा हुआ

अर्श सिद्दीक़ी

फ़रेब-ए-ख़ूबी-ए-नैरंग देखने के लिए

संजय मिश्रा शौक़

ग़म के बे-नूर मज़ारों का गला घोंट आया

इधर उधर से मुक़ाबिल को यूँ न घाइल कर

ज़ुबैर रिज़वी

अजीब लोग थे ख़ामोश रह के जीते थे

ज़ुबैर रिज़वी

रद्द-ए-अमल

ज़ुबैर रिज़वी

वो बाद-ए-गर्म था बाद-ए-सबा के होते हुए

ज़ुबैर रिज़वी

तिलिस्म-ए-हर्फ़-ओ-हिकायत उसे भी ले डूबा

ज़ुबैर रिज़वी

शहर-ए-आशोब

ज़िया जालंधरी

हम

ज़िया जालंधरी

कितनी देर और है ये बज़्म-ए-तरब-नाक न कह

ज़िया जालंधरी

देखें आईने के मानिंद सहें ग़म की तरह

ज़िया जालंधरी

पुल-सिरात

ज़ेहरा निगाह

इंसाफ़

ज़ेहरा निगाह

रुक जा हुजूम-ए-गुल कि अभी हौसला नहीं

ज़ेहरा निगाह

हर ख़ार इनायत था हर इक संग सिला था

ज़ेहरा निगाह

मिडिल-क्लास

ज़ेहरा अलवी

ख़ुद-कलामी ख़ातून-ए-ख़ाना की

ज़ेहरा अलवी

कल

ज़ीशान साहिल

क्यूँ हो न गिर के कासा-ए-तदबीर पाश पाश

ज़ेबा

नक़्श-ए-तस्वीर न वो संग का पैकर कोई

ज़ेब ग़ौरी

मैं तिश्ना था मुझे सर-चश्मा-ए-सराब दिया

ज़ेब ग़ौरी

ढला न संग के पैकर में यार किस का था

ज़ेब ग़ौरी

तू अपने जैसा अछूता ख़याल दे मुझ को

ज़रीना सानी

ऐ संग-ए-राह आबला-पाई न दे मुझे

ज़रीना सानी

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