इधर उधर से मुक़ाबिल को यूँ न घाइल कर
वो संग फेंक कि बे-साख़्ता निशाना लगे
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अंजाम क़िस्सा-गो का
दोनों हम-पेशा थे दोनों ही में याराना था
कुछ दिनों इस शहर में हम लोग आवारा फिरें
बरसों में तुझे देखा तो एहसास हुआ है
हमारी गर्दिश-ए-पा रास्तों के काम आई
शफ़क़-सिफ़ात जो पैकर दिखाई देता है
पुराने लोग दरियाओं में नेकी डाल आते थे
कभी ख़िरद से कभी दिल से दोस्ती कर ली
मैं अपनी दास्ताँ को आख़िर-ए-शब तक तो ले आया
शरीफ़-ज़ादा
सुख़न के कुछ तो गुहर मैं भी नज़्र करता चलूँ
जो न इक बार भी चलते हुए मुड़ के देखें