जो न इक बार भी चलते हुए मुड़ के देखें
ऐसी मग़रूर तमन्नाओं का पीछा न करो
Anwar Masood
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
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Gulzar
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Allama Iqbal
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हम दोनों में कोई न अपने क़ौल-ओ-क़सम का सच्चा था
सुर्ख़ियाँ अख़बार की गलियों में ग़ुल करती रहीं
शाम की दहलीज़ पर ठहरी हुई यादें 'ज़ुबैर'
ग़ुरूब-ए-शाम ही से ख़ुद को यूँ महसूस करता हूँ
कहाँ पे टूटा था रब्त-ए-कलाम याद नहीं
तमाम रास्ता फूलों भरा तुम्हारा था
जला है दिल या कोई घर ये देखना लोगो
पत्थर की क़बा पहने मिला जो भी मिला है
मिलन मौसमों की सज़ा चाहता हूँ
दिल को रंजीदा करो आँख को पुर-नम कर लो
सियाह पट्टी
कहाँ मैं जाऊँ ग़म-ए-इश्क़-ए-राएगाँ ले कर