संग Poetry (page 14)

असीरों में भी हो जाएँ जो कुछ आशुफ़्ता-सर पैदा

इक़बाल सुहैल

प्यार करने भी न पाया था कि रुस्वाई मिली

इक़बाल साजिद

मारा किसी ने संग तो ठोकर लगी मुझे

इक़बाल साजिद

सूरज हूँ ज़िंदगी की रमक़ छोड़ जाऊँगा

इक़बाल साजिद

सूरज हूँ चमकने का भी हक़ चाहिए मुझ को

इक़बाल साजिद

प्यासे के पास रात समुंदर पड़ा हुआ

इक़बाल साजिद

कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े

इक़बाल साजिद

ग़ार से संग हटाया तो वो ख़ाली निकला

इक़बाल साजिद

ग़ार से संग हटाया तो वो ख़ाली निकला

इक़बाल साजिद

दहर के अंधे कुएँ में कस के आवाज़ा लगा

इक़बाल साजिद

अजब सदा ये नुमाइश में कल सुनाई दी

इक़बाल साजिद

रवाँ हूँ मैं

इक़बाल कौसर

'इक़बाल' यूँही कब तक हम क़ैद-ए-अना काटें

इक़बाल कौसर

गुहर समझा था लेकिन संग निकला

इक़बाल कैफ़ी

गुहर समझा था लेकिन संग निकला

इक़बाल कैफ़ी

हरा-भरा था चमन में शजर अकेला था

इंतिख़ाब अालम

उस संग-दिल के हिज्र में चश्मों को अपने आह

इंशा अल्लाह ख़ान

या वस्ल में रखिए मुझे या अपनी हवस में

इंशा अल्लाह ख़ान

तू ने लगाई अब की ये क्या आग ऐ बसंत

इंशा अल्लाह ख़ान

टूटा फूटा सही एहसास-ए-अना है मुझ में

इंद्र सरूप श्रीवास्तवा

दिन में जो साथ सब के हँसता था

इंद्र सराज़ी

हमें तो इंतिज़ारी और ही थी

इनाम नदीम

काँटों में ही कुछ ज़र्फ़-ए-समाअत नज़र आए

इमदाद निज़ामी

ज़बान-ए-हाल से हम शिकवा-ए-बेदाद करते हैं

इम्दाद इमाम असर

कब ग़ैर हुआ महव तिरी जल्वागरी का

इम्दाद इमाम असर

दिल संग नहीं है कि सितमगर न भर आता

इम्दाद इमाम असर

क्या क्या न मुझ से संग-दिली दिलबरों ने की

इमदाद अली बहर

तारे गिनते रात कटती ही नहीं आती है नींद

इमदाद अली बहर

महरम के सितारे टूटते हैं

इमदाद अली बहर

इस तरह ज़ीस्त बसर की कोई पुरसाँ न हुआ

इमदाद अली बहर

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