गुहर समझा था लेकिन संग निकला
किसी का ज़र्फ़ कितना तंग निकला
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बे-कसी पर ज़ुल्म ला-महदूद है
यही नहीं कि निगाहों को अश्क-बार किया
मोहब्बतों को भी उस ने ख़ता क़रार दिया
मोहब्बतों ने बड़ी हेर-फेर कर दी है
अफ़सोस माबदों में ख़ुदा बेचते हैं लोग
मैं ऐसे हुस्न-ए-ज़न को ख़ुदा मानता नहीं
ख़िज़ाँ का दौर भी आता है एक दिन 'कैफ़ी'
मौज-ए-बला में रोज़ कोई डूबता रहे
साइल के लबों पर है दुआ और तरह की
कैफ़-ए-हयात तेरे सिवा कुछ नहीं रहा