अफ़सोस माबदों में ख़ुदा बेचते हैं लोग
अब मअनी-ए-सज़ा-ओ-जज़ा कुछ नहीं रहा
Jaun Eliya
Allama Iqbal
Anwar Masood
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Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
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Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
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फूलों का तबस्सुम भी वो पहला सा नहीं है
देखा है मोहब्बत को इबादत की नज़र से
गुहर समझा था लेकिन संग निकला
साइल के लबों पर है दुआ और तरह की
मोहब्बतों ने बड़ी हेर-फेर कर दी है
कैफ़-ए-हयात तेरे सिवा कुछ नहीं रहा
मौज-ए-बला में रोज़ कोई डूबता रहे
लब-ए-गुदाज़ पे अल्फ़ाज़-ए-सख़्त रहते हैं
साहिल के तलबगार भी क्या ख़ूब रहे हैं
ग़ज़ल के रंग में मल्बूस हो कर
मैं ऐसे हुस्न-ए-ज़न को ख़ुदा मानता नहीं