ग़ज़ल के रंग में मल्बूस हो कर
रुबाब-ए-दर्द से आहंग निकला
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यही नहीं कि निगाहों को अश्क-बार किया
मौज-ए-बला में रोज़ कोई डूबता रहे
अफ़सोस माबदों में ख़ुदा बेचते हैं लोग
ख़िज़ाँ का दौर भी आता है एक दिन 'कैफ़ी'
बे-कसी पर ज़ुल्म ला-महदूद है
देखा है मोहब्बत को इबादत की नज़र से
लब-ए-गुदाज़ पे अल्फ़ाज़-ए-सख़्त रहते हैं
मोहब्बतों को भी उस ने ख़ता क़रार दिया
साइल के लबों पर है दुआ और तरह की
सुना है उस ने ख़िज़ाँ को बहार करना है
कैफ़-ए-हयात तेरे सिवा कुछ नहीं रहा