ख़िज़ाँ का दौर भी आता है एक दिन 'कैफ़ी'
सदा-बहार कहाँ तक दरख़्त रहते हैं
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फूलों का तबस्सुम भी वो पहला सा नहीं है
लब-ए-गुदाज़ पे अल्फ़ाज़-ए-सख़्त रहते हैं
मोहब्बतों को भी उस ने ख़ता क़रार दिया
देखा है मोहब्बत को इबादत की नज़र से
सुना है उस ने ख़िज़ाँ को बहार करना है
साहिल के तलबगार भी क्या ख़ूब रहे हैं
गुहर समझा था लेकिन संग निकला
मौज-ए-बला में रोज़ कोई डूबता रहे
कैफ़-ए-हयात तेरे सिवा कुछ नहीं रहा
मोहब्बतों ने बड़ी हेर-फेर कर दी है
अटे हुए हैं फ़क़ीरों के पैरहन 'कैफ़ी'