मैं ऐसे हुस्न-ए-ज़न को ख़ुदा मानता नहीं
आहों के एहतिजाज से जो मावरा रहे
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लब-ए-गुदाज़ पे अल्फ़ाज़-ए-सख़्त रहते हैं
साहिल के तलबगार भी क्या ख़ूब रहे हैं
यही नहीं कि निगाहों को अश्क-बार किया
साइल के लबों पर है दुआ और तरह की
गुहर समझा था लेकिन संग निकला
मौज-ए-बला में रोज़ कोई डूबता रहे
मोहब्बतों को भी उस ने ख़ता क़रार दिया
मोहब्बतों ने बड़ी हेर-फेर कर दी है
देखा है मोहब्बत को इबादत की नज़र से
अटे हुए हैं फ़क़ीरों के पैरहन 'कैफ़ी'