यही नहीं कि निगाहों को अश्क-बार किया
तिरे फ़िराक़ में दामन भी तार तार किया
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अटे हुए हैं फ़क़ीरों के पैरहन 'कैफ़ी'
मोहब्बतों ने बड़ी हेर-फेर कर दी है
लब-ए-गुदाज़ पे अल्फ़ाज़-ए-सख़्त रहते हैं
देखा है मोहब्बत को इबादत की नज़र से
ग़ज़ल के रंग में मल्बूस हो कर
गुहर समझा था लेकिन संग निकला
फूलों का तबस्सुम भी वो पहला सा नहीं है
कैफ़-ए-हयात तेरे सिवा कुछ नहीं रहा
मौज-ए-बला में रोज़ कोई डूबता रहे
साहिल के तलबगार भी क्या ख़ूब रहे हैं
सुना है उस ने ख़िज़ाँ को बहार करना है