उस संग-दिल के हिज्र में चश्मों को अपने आह
मानिंद-ए-आबशार किया हम ने क्या किया
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एक दिन रात की सोहबत में नहीं होते शरीक
हर तरफ़ हैं तिरे दीदार के भूके लाखों
सुब्ह-दम मुझ से लिपट कर वो नशे में बोले
कमर बाँधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं
बंदगी हम ने तो जी से अपनी ठानी आप की
दस अक़्ल दस मक़ूले दस मुद्रिकात तीसों
काटे हैं हम ने यूँही अय्याम ज़िंदगी के
फ़क़ीराना है दिल मुक़ीम उस की रह का
जिस ने यारो मुझ से दावा शेर के फ़न का किया
किनाया और ढब का इस मिरी मज्लिस में कम कीजे
जाड़े में क्या मज़ा हो वो तो सिमट रहे हों
ज़मीं से उट्ठी है या चर्ख़ पर से उतरी है