ज़मीं से उट्ठी है या चर्ख़ पर से उतरी है
ये आग इश्क़ की या-रब किधर से उतरी है
Anwar Masood
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Habib Jalib
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कुछ इशारा जो किया हम ने मुलाक़ात के वक़्त
है मुझ को रब्त बस-कि ग़ज़ालान-ए-रम के साथ
ये किस से चाँदनी में हम ब-ज़ेर-ए-आसमाँ लिपटे
जिस ने यारो मुझ से दावा शेर के फ़न का किया
हज़रत-ए-इश्क़ इधर कीजे करम या माबूद
तू ने लगाई अब की ये क्या आग ऐ बसंत
तोडूँगा ख़ुम-ए-बादा-ए-अंगूर की गर्दन
है ख़ाल यूँ तुम्हारे चाह-ए-ज़क़न के अंदर
अच्छा जो ख़फ़ा हम से हो तुम ऐ सनम अच्छा
जाड़े में क्या मज़ा हो वो तो सिमट रहे हों
न लगी मुझ को जब उस शोख़-ए-तरहदार की गेंद
अजीब लुत्फ़ कुछ आपस के छेड़-छाड़ में है