अजीब लुत्फ़ कुछ आपस के छेड़-छाड़ में है
कहाँ मिलाप में वो बात जो बिगाड़ में है
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नींद मस्तों को कहाँ और किधर का तकिया
तोडूँगा ख़ुम-ए-बादा-ए-अंगूर की गर्दन
दे एक शब को अपनी मुझे ज़र्द शाल तू
ये नहीं बर्क़ इक फ़रंगी है
बस्ती तुझ बिन उजाड़ सी है
मुझे छेड़ने को साक़ी ने दिया जो जाम उल्टा
टुक आँख मिलाते ही किया काम हमारा
छेड़ने का तो मज़ा जब है कहो और सुनो
तब से आशिक़ हैं हम ऐ तिफ़्ल-ए-परी-वश तेरे
सनम-ख़ाना जाता हूँ तू मुझ को नाहक़
ग़ुंचा-ए-गुल के सबा गोद भरी जाती है
कमर बाँधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं