दे एक शब को अपनी मुझे ज़र्द शाल तू
है मुझ को सूँघने के हवस सो निकाल तू
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तुम्हारे हाथों की उँगलियों की ये देखो पोरें ग़ुलाम तीसों
न लगी मुझ को जब उस शोख़-ए-तरहदार की गेंद
एक दिन रात की सोहबत में नहीं होते शरीक
गाली सही अदा सही चीन-ए-जबीं सही
है नूर-ए-बसर मर्दुमक-ए-दीदा में पिन्हाँ यूँ जैसे कन्हैया
ज़ुल्फ़ को था ख़याल बोसे का
यास-ओ-उमीद-ओ-शादी-ओ-ग़म ने धूम उठाई सीने में
तोडूँगा ख़ुम-ए-बादा-ए-अंगूर की गर्दन
नज़ाकत उस गुल-ए-राना की देखियो 'इंशा'
शब ख़्वाब में देखा था मजनूँ को कहीं अपने
दीवार फाँदने में देखोगे काम मेरा