है नूर-ए-बसर मर्दुमक-ए-दीदा में पिन्हाँ यूँ जैसे कन्हैया
सो अश्क के क़तरों से पड़ा खेले है झुरमुट और आँखों में पनघट
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लैला ओ मजनूँ की लाखों गरचे तस्वीरें खिंचीं
ये जो मुझ से और जुनूँ से याँ बड़ी जंग होती है देर से
भले आदमी कहीं बाज़ आ अरे उस परी के सुहाग से
तू ने लगाई अब की ये क्या आग ऐ बसंत
तुझ से यूँ यक-बार तोड़ूँ किस तरह
न तो काम रखिए शिकार से न तो दिल लगाइए सैर से
बस्ती तुझ बिन उजाड़ सी है
है ख़ाल यूँ तुम्हारे चाह-ए-ज़क़न के अंदर
ये अजीब माजरा है कि ब-रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
अजीब लुत्फ़ कुछ आपस के छेड़-छाड़ में है
ख़ूबान-ए-रोज़गार मुक़ल्लिद तेरी हैं सब
गर्मी ने कुछ आग और भी सीने में लगाई