ख़ूबान-ए-रोज़गार मुक़ल्लिद तेरी हैं सब
जो चीज़ तू करे सो वो पावे रिवाज आज
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चंद मुद्दत को फिराक़-ए-सनम-ओ-दैर तो है
फबती तिरे मुखड़े पे मुझे हूर की सूझी
टुक क़ैस को छेड़-छाड़ कर इश्क़
काश अब्र करे चादर-ए-महताब की चोरी
छेड़ने का तो मज़ा जब है कहो और सुनो
ये किस से चाँदनी में हम ब-ज़ेर-ए-आसमाँ लिपटे
दहकी है आग दिल में पड़े इश्तियाक़ की
न लगी मुझ को जब उस शोख़-ए-तरहदार की गेंद
मुझे क्यूँ न आवे साक़ी नज़र आफ़्ताब उल्टा
दे एक शब को अपनी मुझे ज़र्द शाल तू
उस संग-दिल के हिज्र में चश्मों को अपने आह
नींद मस्तों को कहाँ और किधर का तकिया