चंद मुद्दत को फिराक़-ए-सनम-ओ-दैर तो है
आओ काबा कभी देख आएँ न इक सैर तो है
Rahat Indori
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ये जो मुझ से और जुनूँ से याँ बड़ी जंग होती है देर से
वो जो शख़्स अपने ही ताड़ में सो छुपा है दिल ही की आड़ में
सद-बर्ग गह दिखाई है गह अर्ग़वाँ बसंत
छेड़ने का तो मज़ा जब है कहो और सुनो
उस संग-दिल के हिज्र में चश्मों को अपने आह
है तिरा गाल माल बोसे का
हर तरफ़ हैं तिरे दीदार के भूके लाखों
मैं ने जो कचकचा कर कल उन की रान काटी
लब पे आई हुई ये जान फिरे
न तो काम रखिए शिकार से न तो दिल लगाइए सैर से
चाहता हूँ तुझे नबी की क़सम