हर तरफ़ हैं तिरे दीदार के भूके लाखों
पेट भर कर कोई ऐसा भी तरहदार न हो
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धूम इतनी तिरे दीवाने मचा सकते हैं
चाहता हूँ तुझे नबी की क़सम
मिल गए पर हिजाब बाक़ी है
सर चश्म सब्र दिल दीं तन माल जान आठों
न लगी मुझ को जब उस शोख़-ए-तरहदार की गेंद
जब तक कि ख़ूब वाक़िफ़-ए-राज़-ए-निहाँ न हूँ
बस्ती तुझ बिन उजाड़ सी है
क्या हँसी आती है मुझ को हज़रत-ए-इंसान पर
दहकी है आग दिल में पड़े इश्तियाक़ की
आने अटक अटक के लगी साँस रात से
फबती तिरे मुखड़े पे मुझे हूर की सूझी
दस अक़्ल दस मक़ूले दस मुद्रिकात तीसों