बैठता है जब तुंदीला शैख़ आ कर बज़्म में
इक बड़ा मटका सा रहता है शिकम आगे धरा
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चंद मुद्दत को फिराक़-ए-सनम-ओ-दैर तो है
क्या हँसी आती है मुझ को हज़रत-ए-इंसान पर
तर्क कर अपने नंग-ओ-नाम को हम
टुक आँख मिलाते ही किया काम हमारा
हैं जो मुरव्वज मेहर-ओ-वफ़ा के सब सर-रिश्ते भूल गए
मियाँ चश्म-ए-जादू पे इतना घमंड
बात के साथ ही मौजूद है टाल एक न एक
जावे वो सनम ब्रिज को तो आप कन्हैया
अजीब लुत्फ़ कुछ आपस के छेड़-छाड़ में है
साहब के हर्ज़ा-पन से हर एक को गिला है
दीवार फाँदने में देखोगे काम मेरा