जावे वो सनम ब्रिज को तो आप कन्हैया
झट सामने हो मुरली की धुन नज़्र पकड़ कर
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तफ़ज़्जुलात नहीं लुत्फ़ की निगाह नहीं
है मुझ को रब्त बस-कि ग़ज़ालान-ए-रम के साथ
ज़मीं से उट्ठी है या चर्ख़ पर से उतरी है
बैठता है जब तुंदीला शैख़ आ कर बज़्म में
नादाँ कहाँ तरब का सर-अंजाम और इश्क़
गाली सही अदा सही चीन-ए-जबीं सही
याँ ज़ख़्मी-ए-निगाह के जीने पे हर्फ़ है
ये अजीब माजरा है कि ब-रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
नज़ाकत उस गुल-ए-राना की देखियो 'इंशा'
कुछ इशारा जो किया हम ने मुलाक़ात के वक़्त
तब से आशिक़ हैं हम ऐ तिफ़्ल-ए-परी-वश तेरे