जज़्बा-ए-इश्क़ सलामत है तो इंशा-अल्लाह
कच्चे धागे से चले आएँगे सरकार बंधे
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तर्क कर अपने नंग-ओ-नाम को हम
चाहता हूँ तुझे नबी की क़सम
ये नहीं बर्क़ इक फ़रंगी है
साहब के हर्ज़ा-पन से हर एक को गिला है
नादाँ कहाँ तरब का सर-अंजाम और इश्क़
जो हाथ अपने सब्ज़े का घोड़ा लगा
सुब्ह-दम मुझ से लिपट कर वो नशे में बोले
टुक इक ऐ नसीम सँभाल ले कि बहार मस्त-ए-शराब है
देखना जब मुझे कर शान ये गाली देना
दहकी है आग दिल में पड़े इश्तियाक़ की
ग़ुंचा-ए-गुल के सबा गोद भरी जाती है
तुम्हारे हाथों की उँगलियों की ये देखो पोरें ग़ुलाम तीसों