सुब्ह-दम मुझ से लिपट कर वो नशे में बोले
तुम बने बाद-ए-सबा हम गुल-ए-नसरीन हुए
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मल ख़ून-ए-जिगर मेरा हाथों से हिना समझे
न तो काम रखिए शिकार से न तो दिल लगाइए सैर से
ज़िन्हार हिम्मत अपने से हरगिज़ न हारिए
हर तरफ़ हैं तिरे दीदार के भूके लाखों
हैं जो मुरव्वज मेहर-ओ-वफ़ा के सब सर-रिश्ते भूल गए
जाड़े में क्या मज़ा हो वो तो सिमट रहे हों
नींद मस्तों को कहाँ और किधर का तकिया
वो परी ही नहीं कुछ हो के कड़ी मुझ से लड़ी
क्या हँसी आती है मुझ को हज़रत-ए-इंसान पर
क्या भला शैख़-जी थे दैर में थोड़े पत्थर
बंक की जल्वा-गरी पर ग़श हूँ
सनम-ख़ाना जाता हूँ तू मुझ को नाहक़