सनम-ख़ाना जाता हूँ तू मुझ को नाहक़
न बहका न बहका न बहका न बहका
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चंद मुद्दत को फिराक़-ए-सनम-ओ-दैर तो है
है नूर-ए-बसर मर्दुमक-ए-दीदा में पिन्हाँ यूँ जैसे कन्हैया
कुछ इशारा जो किया हम ने मुलाक़ात के वक़्त
जिस को कुछ धन हो करे हम से हक़ीक़त की बहस
हज़ार शैख़ ने दाढ़ी बढ़ाई सन की सी
नींद मस्तों को कहाँ और किधर का तकिया
न कह तू शैख़ मुझे ज़ोहद सीख मस्ती छोड़
फ़क़ीराना है दिल मुक़ीम उस की रह का
चाहता हूँ तुझे नबी की क़सम
काश अब्र करे चादर-ए-महताब की चोरी
दे एक शब को अपनी मुझे ज़र्द शाल तू
गाहे गाहे जो इधर आप करम करते हैं