छेड़ने का तो मज़ा जब है कहो और सुनो
बात में तुम तो ख़फ़ा हो गए लो और सुनो
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टुक क़ैस को छेड़-छाड़ कर इश्क़
जज़्बा-ए-इश्क़ सलामत है तो इंशा-अल्लाह
वो जो शख़्स अपने ही ताड़ में सो छुपा है दिल ही की आड़ में
यास-ओ-उमीद-ओ-शादी-ओ-ग़म ने धूम उठाई सीने में
हज़रत-ए-इश्क़ इधर कीजे करम या माबूद
ग़ुंचा-ए-गुल के सबा गोद भरी जाती है
मल ख़ून-ए-जिगर मेरा हाथों से हिना समझे
तू ने लगाई अब की ये क्या आग ऐ बसंत
मुझे छेड़ने को साक़ी ने दिया जो जाम उल्टा
दीवार फाँदने में देखोगे काम मेरा
कमर बाँधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं
उस बंदा की चाह देखिएगा