काटे हैं हम ने यूँही अय्याम ज़िंदगी के
सीधे से सीधे-सादे और कज से कज रहे हैं
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न लगी मुझ को जब उस शोख़-ए-तरहदार की गेंद
एक दिन रात की सोहबत में नहीं होते शरीक
मियाँ चश्म-ए-जादू पे इतना घमंड
गाहे गाहे जो इधर आप करम करते हैं
तर्क कर अपने नंग-ओ-नाम को हम
ये जो मुझ से और जुनूँ से याँ बड़ी जंग होती है देर से
दस अक़्ल दस मक़ूले दस मुद्रिकात तीसों
क्या भला शैख़-जी थे दैर में थोड़े पत्थर
है नूर-ए-बसर मर्दुमक-ए-दीदा में पिन्हाँ यूँ जैसे कन्हैया
टुक क़ैस को छेड़-छाड़ कर इश्क़
नज़ाकत उस गुल-ए-राना की देखियो 'इंशा'
ग़ुंचा-ए-गुल के सबा गोद भरी जाती है