गर्मी ने कुछ आग और भी सीने में लगाई
हर तौर ग़रज़ आप से मिलना ही कम अच्छा
Faiz Ahmad Faiz
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हज़ार शैख़ ने दाढ़ी बढ़ाई सन की सी
चाहता हूँ तुझे नबी की क़सम
जाड़े में क्या मज़ा हो वो तो सिमट रहे हों
किनाया और ढब का इस मिरी मज्लिस में कम कीजे
सर चश्म सब्र दिल दीं तन माल जान आठों
मैं ने जो कचकचा कर कल उन की रान काटी
तर्क कर अपने नंग-ओ-नाम को हम
ये नहीं बर्क़ इक फ़रंगी है
साँवले तन पे ग़ज़ब धज है बसंती शाल की
नज़ाकत उस गुल-ए-राना की देखियो 'इंशा'
जो बात तुझ से चाही है अपना मिज़ाज आज