संग Poetry (page 12)

हाथ आ सका है सिलसिला-ए-जिस्म-ओ-जाँ कहाँ

सहर अंसारी

इक शरार-ए-गिरफ़्ता-रंग हूँ मैं

सहर अंसारी

इक ख़्वाब के मौहूम निशाँ ढूँड रहा था

सहर अंसारी

साँस की धार ज़रा घुसती ज़रा काटती है

सईद शरीक़

सफ़र ला सफ़र

सईद अहमद

रात दिन तू रहे रक़ीबाँ-संग

सदरुद्दीन मोहम्मद फ़ाएज़

चौधवाँ उस चंदर का साल हुआ

सदरुद्दीन मोहम्मद फ़ाएज़

रास्ते फैले हुए जितने भी थे पत्थर के थे

सदफ़ जाफ़री

आँधी का कर ख़याल न तेवर हवा के देख

साबिर ज़ाहिद

इलाज-ए-अहल-ए-सितम चाहिए अभी से 'ज़फ़र'

साबिर ज़फ़र

मिसाल-ए-संग पड़ा कब तक इंतिज़ार करूँ

साबिर ज़फ़र

कोई तो तर्क-ए-मरासिम पे वास्ता रह जाए

साबिर ज़फ़र

ख़ुमार-ए-शब में जो इक दूसरे पे गिरते हैं

साबिर ज़फ़र

लोगो ये अजीब सानेहा है

साबिर वसीम

इक शक्ल बे-इरादा सर-ए-बाम आ गई

साबिर वसीम

क्यूँ ढूँढती रहती हूँ उसे सारे जहाँ में

सबा नुसरत

क़लम से राब्ता-ए-रंग-ओ-आब टूट गया

सबा नक़वी

अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा

सबा अकबराबादी

आईना बन जाइए जल्वा-असर हो जाइए

सबा अकबराबादी

हम कि चेहरे पे न लाए कभी वीरानी को

सादुल्लाह शाह

जफ़ा में नाम निकालो न आसमाँ की तरह

रियाज़ ख़ैराबादी

सफ़र-ए-ज़िंदगी नहीं आसाँ

रिफ़अत सुलतान

गली गली मिरी वहशत लिए फिरे है मुझे

रिफ़अत सरोश

तख़्लीक़ किसे कहते हैं है अज़्मत-ए-फ़न क्या

रहबर जौनपूरी

वो मुंतज़िर हैं हमारे तो हम किसी के हैं

रेहाना रूही

वो शाख़-ए-गुल कि जो आवाज़-ए-अंदलीब भी थी

राज़ी अख्तर शौक़

संग हैं नावक-ए-दुश्नाम हैं रुस्वाई है

राज़ी अख्तर शौक़

सलामत आए हैं फिर उस के कूचा-ओ-दर से

राज़ी अख्तर शौक़

फिर जो देखा दूर तक इक ख़ामुशी पाई गई

राज़ी अख्तर शौक़

जभी तो ज़ख़्म भी गहरा नहीं है

राज़ी अख्तर शौक़

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