अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा
किसी का आस्ताँ क्यूँ है किसी का संग-ए-दर क्या है
Allama Iqbal
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काम आएगी मिज़ाज-ए-इश्क़ की आशुफ़्तगी
रवाँ है क़ाफ़िला-ए-रूह-ए-इलतिफ़ात अभी
भीड़ तन्हाइयों का मेला है
कमाल-ए-ज़ब्त में यूँ अश्क-ए-मुज़्तर टूट कर निकला
कसरत-ए-जल्वा को आईना-ए-वहदत समझो
इक रोज़ छीन लेगी हमीं से ज़मीं हमें
आईना कैसा था वो शाम-ए-शकेबाई का
अच्छा हुआ कि सब दर-ओ-दीवार गिर पड़े
मुसाफ़िरान-ए-रह-ए-शौक़ सुस्त-गाम हो क्यूँ
कब तक यक़ीन इश्क़ हमें ख़ुद न आएगा
तुम ने रस्म-ए-जफ़ा उठा दी है
ग़लत-फ़हमियों में जवानी गुज़ारी