ग़लत-फ़हमियों में जवानी गुज़ारी
कभी वो न समझे कभी हम न समझे
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गए थे नक़्द-ए-गिराँ-माया-ए-ख़ुलूस के साथ
पूछें तिरे ज़ुल्म का सबब हम
यगाना बन के हो जाए वो बेगाना तो क्या होगा
पस्ती ने बुलंदी को बनाया है हक़ीक़त
ग़म-ए-दौराँ को बड़ी चीज़ समझ रक्खा था
आईना कैसा था वो शाम-ए-शकेबाई का
उलझनों में कैसे इत्मीनान-ए-दिल पैदा करें
इक रोज़ छीन लेगी हमीं से ज़मीं हमें
हुस्न जो रंग ख़िज़ाँ में है वो पहचान गया
उजाला कर के ज़ुल्मत में घिरा हूँ
उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं
रवाँ है क़ाफ़िला-ए-रूह-ए-इलतिफ़ात अभी