पस्ती ने बुलंदी को बनाया है हक़ीक़त
ये रिफ़अत-ए-अफ़्लाक भी मुहताज-ए-ज़मीं है
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ग़म-ए-दौराँ को बड़ी चीज़ समझ रक्खा था
ये हमीं हैं कि तिरा दर्द छुपा कर दिल में
जो देखिए तो करम इश्क़ पर ज़रा भी नहीं
इस शान का आशुफ़्ता-ओ-हैराँ न मिलेगा
आप आए हैं सो अब घर में उजाला है बहुत
अजल होती रहेगी इश्क़ कर के मुल्तवी कब तक
हवस-परस्त अदीबों पे हद लगे कोई
बाल-ओ-पर की जुम्बिशों को काम में लाते रहो
तुम ने रस्म-ए-जफ़ा उठा दी है
कसरत-ए-जल्वा को आईना-ए-वहदत समझो
उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं
पूरी मिरे जुनूँ की ज़रूरत न कर सके