रौशनी ख़ुद भी चराग़ों से अलग रहती है
दिल में जो रहते हैं वो दिल नहीं होने पाते
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उजाला कर के ज़ुल्मत में घिरा हूँ
रवाँ है क़ाफ़िला-ए-रूह-ए-इलतिफ़ात अभी
अच्छा हुआ कि सब दर-ओ-दीवार गिर पड़े
काम आएगी मिज़ाज-ए-इश्क़ की आशुफ़्तगी
अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा
इक रोज़ छीन लेगी हमीं से ज़मीं हमें
सोना था जितना अहद-ए-जवानी में सो लिए
मंज़िल पे पहुँचने का मुझे शौक़ हुआ तेज़
पूरी मिरे जुनूँ की ज़रूरत न कर सके
उलझनों में कैसे इत्मीनान-ए-दिल पैदा करें
जुनूँ में गुम हुए होश्यार हो कर
इस शान का आशुफ़्ता-ओ-हैराँ न मिलेगा