रवाँ है क़ाफ़िला-ए-रूह-ए-इलतिफ़ात अभी
हमारी राह से हट जाए काएनात अभी
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अपने जलने में किसी को नहीं करते हैं शरीक
पूछें तिरे ज़ुल्म का सबब हम
रौशनी ख़ुद भी चराग़ों से अलग रहती है
इक रोज़ छीन लेगी हमीं से ज़मीं हमें
कब तक यक़ीन इश्क़ हमें ख़ुद न आएगा
अश्क-बारी नहीं फ़ुर्क़त में शरर-बारी है
ऐसा भी कोई ग़म है जो तुम से नहीं पाया
आईना बन जाइए जल्वा-असर हो जाइए
अच्छा हुआ कि सब दर-ओ-दीवार गिर पड़े
पस्ती ने बुलंदी को बनाया है हक़ीक़त
उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं
उस का वादा ता-क़यामत कम से कम