समझेगा आदमी को वहाँ कौन आदमी
बंदा जहाँ ख़ुदा को ख़ुदा मानता नहीं
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Anwar Masood
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Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
Habib Jalib
Gulzar
Parveen Shakir
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हवस-परस्त अदीबों पे हद लगे कोई
काम आएगी मिज़ाज-ए-इश्क़ की आशुफ़्तगी
कमाल-ए-ज़ब्त में यूँ अश्क-ए-मुज़्तर टूट कर निकला
ग़ालिबन मेरे अलावा कोई गुज़रा भी नहीं
हुजूम-ए-ग़म है क़ल्ब ग़म-ज़दा है
पस्ती ने बुलंदी को बनाया है हक़ीक़त
ग़लत-फ़हमियों में जवानी गुज़ारी
अजल होती रहेगी इश्क़ कर के मुल्तवी कब तक
कुफ़्र ओ इस्लाम के झगड़े को चुका दो साहब
क्या मआल-ए-दहर है मेरी मोहब्बत का मआल
यगाना बन के हो जाए वो बेगाना तो क्या होगा
अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा