काम आएगी मिज़ाज-ए-इश्क़ की आशुफ़्तगी
और कुछ हो या न हो हंगामा-ए-महफ़िल सही
Rahat Indori
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इक रोज़ छीन लेगी हमीं से ज़मीं हमें
पूछें तिरे ज़ुल्म का सबब हम
इस रंग में अपने दिल-ए-नादाँ से गिला है
भीड़ तन्हाइयों का मेला है
अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा
क्या मआल-ए-दहर है मेरी मोहब्बत का मआल
समझेगा आदमी को वहाँ कौन आदमी
पस्ती ने बुलंदी को बनाया है हक़ीक़त
अभी तो एक वतन छोड़ कर ही निकले हैं
तुझ से दामन-कशाँ नहीं हूँ मैं
अश्क-बारी नहीं फ़ुर्क़त में शरर-बारी है