जब इश्क़ था तो दिल का उजाला था दहर में
कोई चराग़ नूर-बदामाँ नहीं है अब
Habib Jalib
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आईना कैसा था वो शाम-ए-शकेबाई का
दोस्तों से ये कहूँ क्या कि मिरी क़द्र करो
ग़लत-फ़हमियों में जवानी गुज़ारी
काम आएगी मिज़ाज-ए-इश्क़ की आशुफ़्तगी
मंज़िल पे पहुँचने का मुझे शौक़ हुआ तेज़
बाल-ओ-पर की जुम्बिशों को काम में लाते रहो
कौन उठाए इश्क़ के अंजाम की जानिब नज़र
चला-चल मोहलत-ए-आराम क्या है
अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा
सोना था जितना अहद-ए-जवानी में सो लिए
सौ बार जिस को देख के हैरान हो चुके
यगाना बन के हो जाए वो बेगाना तो क्या होगा