इश्क़ आता न अगर राह-नुमाई के लिए
आप भी वाक़िफ़-ए-मंज़िल नहीं होने पाते
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ग़लत-फ़हमियों में जवानी गुज़ारी
आप के लब पे और वफ़ा की क़सम
कुफ़्र ओ इस्लाम के झगड़े को चुका दो साहब
पूरी मिरे जुनूँ की ज़रूरत न कर सके
हुजूम-ए-ग़म है क़ल्ब ग़म-ज़दा है
हुस्न जो रंग ख़िज़ाँ में है वो पहचान गया
समझेगा आदमी को वहाँ कौन आदमी
तुझ से दामन-कशाँ नहीं हूँ मैं
आईना कैसा था वो शाम-ए-शकेबाई का
चला-चल मोहलत-ए-आराम क्या है
पूछें तिरे ज़ुल्म का सबब हम
मुसाफ़िरान-ए-रह-ए-शौक़ सुस्त-गाम हो क्यूँ