आईना कैसा था वो शाम-ए-शकेबाई का
सामना कर न सका अपनी ही बीनाई का
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काम आएगी मिज़ाज-ए-इश्क़ की आशुफ़्तगी
सोना था जितना अहद-ए-जवानी में सो लिए
ये हमीं हैं कि तिरा दर्द छुपा कर दिल में
उस का वादा ता-क़यामत कम से कम
कमाल-ए-ज़ब्त में यूँ अश्क-ए-मुज़्तर टूट कर निकला
रौशनी ख़ुद भी चराग़ों से अलग रहती है
चला-चल मोहलत-ए-आराम क्या है
आप आए हैं सो अब घर में उजाला है बहुत
इश्क़ आता न अगर राह-नुमाई के लिए
जब इश्क़ था तो दिल का उजाला था दहर में
पूछें तिरे ज़ुल्म का सबब हम
तुझ से दामन-कशाँ नहीं हूँ मैं