इस शान का आशुफ़्ता-ओ-हैराँ न मिलेगा
आईने से फ़ुर्सत हो तो तस्वीर-ए-'सबा' देख
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उस का वादा ता-क़यामत कम से कम
अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा
तुम ने रस्म-ए-जफ़ा उठा दी है
ये हमीं हैं कि तिरा दर्द छुपा कर दिल में
हवस-परस्त अदीबों पे हद लगे कोई
क्या मआल-ए-दहर है मेरी मोहब्बत का मआल
हुजूम-ए-ग़म है क़ल्ब ग़म-ज़दा है
कसरत-ए-जल्वा को आईना-ए-वहदत समझो
ग़ालिबन मेरे अलावा कोई गुज़रा भी नहीं
उजाला कर के ज़ुल्मत में घिरा हूँ
कब तक यक़ीन इश्क़ हमें ख़ुद न आएगा
अपने जलने में किसी को नहीं करते हैं शरीक