क्या मआल-ए-दहर है मेरी मोहब्बत का मआल
हैं अभी लाखों फ़साने मुंतज़िर आग़ाज़ के
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चला-चल मोहलत-ए-आराम क्या है
सौ बार जिस को देख के हैरान हो चुके
जुनूँ में गुम हुए होश्यार हो कर
बाल-ओ-पर की जुम्बिशों को काम में लाते रहो
तुझ से दामन-कशाँ नहीं हूँ मैं
जब इश्क़ था तो दिल का उजाला था दहर में
कुफ़्र ओ इस्लाम के झगड़े को चुका दो साहब
हुस्न जो रंग ख़िज़ाँ में है वो पहचान गया
मुसाफ़िरान-ए-रह-ए-शौक़ सुस्त-गाम हो क्यूँ
रवाँ है क़ाफ़िला-ए-रूह-ए-इलतिफ़ात अभी
उस का वादा ता-क़यामत कम से कम
उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं