सौ बार जिस को देख के हैरान हो चुके
जी चाहता है फिर उसे इक बार देखना
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इक रोज़ छीन लेगी हमीं से ज़मीं हमें
ऐसा भी कोई ग़म है जो तुम से नहीं पाया
मंज़िल पे पहुँचने का मुझे शौक़ हुआ तेज़
अश्क-बारी नहीं फ़ुर्क़त में शरर-बारी है
आप आए हैं सो अब घर में उजाला है बहुत
जो हमारे सफ़र का क़िस्सा है
आईना कैसा था वो शाम-ए-शकेबाई का
ग़ालिबन मेरे अलावा कोई गुज़रा भी नहीं
उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं
हवस-परस्त अदीबों पे हद लगे कोई
काम आएगी मिज़ाज-ए-इश्क़ की आशुफ़्तगी
ग़लत-फ़हमियों में जवानी गुज़ारी