टुकड़े हुए थे दामन-ए-हस्ती के जिस क़दर
दल्क़-ए-गदा-ए-इश्क़ के पैवंद हो गए
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ऐसा भी कोई ग़म है जो तुम से नहीं पाया
अजल होती रहेगी इश्क़ कर के मुल्तवी कब तक
कब तक नजात पाएँगे वहम ओ यक़ीं से हम
तुझ से दामन-कशाँ नहीं हूँ मैं
आईना कैसा था वो शाम-ए-शकेबाई का
जुनूँ में गुम हुए होश्यार हो कर
कमाल-ए-ज़ब्त में यूँ अश्क-ए-मुज़्तर टूट कर निकला
आप आए हैं सो अब घर में उजाला है बहुत
दोस्तों से ये कहूँ क्या कि मिरी क़द्र करो
काम आएगी मिज़ाज-ए-इश्क़ की आशुफ़्तगी
रवाँ है क़ाफ़िला-ए-रूह-ए-इलतिफ़ात अभी
बाल-ओ-पर की जुम्बिशों को काम में लाते रहो