दोस्तों से ये कहूँ क्या कि मिरी क़द्र करो
अभी अर्ज़ां हूँ कभी पाओगे नायाब मुझे
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अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा
रवाँ है क़ाफ़िला-ए-रूह-ए-इलतिफ़ात अभी
गए थे नक़्द-ए-गिराँ-माया-ए-ख़ुलूस के साथ
ऐसा भी कोई ग़म है जो तुम से नहीं पाया
पूछें तिरे ज़ुल्म का सबब हम
क्या मआल-ए-दहर है मेरी मोहब्बत का मआल
आईना बन जाइए जल्वा-असर हो जाइए
आईना कैसा था वो शाम-ए-शकेबाई का
हवस-परस्त अदीबों पे हद लगे कोई
रौशनी ख़ुद भी चराग़ों से अलग रहती है
कुफ़्र ओ इस्लाम के झगड़े को चुका दो साहब
आप आए हैं सो अब घर में उजाला है बहुत